हिंदी फिल्मों के गुंडे: मनोरंजन और समाज का अनूठा हिस्सा

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हिंदी सिनेमा, जिसे हम बॉलीवुड के नाम से जानते हैं, न केवल अपनी अद्भुत कहानियों और गानों के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसमें चित्रित किए गए यादगार किरदारों के लिए भी।

इनमें से एक विशेष प्रकार के किरदार हैं “गुंडे”। ये गुंडे हर पीढ़ी की फिल्मों में अलग-अलग रूपों और व्यक्तित्वों के साथ उभरे हैं। कभी ये खलनायक के रूप में कहानी के केंद्र में होते हैं, तो कभी हीरो के विरोधी के रूप में।

यह लेख हिंदी फिल्मों के इन गुंडों पर केंद्रित है, जो दशकों से दर्शकों के दिल और दिमाग पर गहरी छाप छोड़ते आए हैं।

गुंडों का उदय: शुरुआती दौर

हिंदी फिल्मों में गुंडों का प्रादुर्भाव 1940 और 1950 के दशक में हुआ। उस समय फिल्मों में गुंडे सामान्यतः समाज में मौजूद बुराइयों का प्रतिनिधित्व करते थे।

वे अपराध, शोषण, और अन्याय के प्रतीक होते थे। प्राण, प्रेम चोपड़ा और अमरीश पुरी जैसे महान कलाकारों ने इन किरदारों को अद्भुत तरीके से जीवंत किया।

प्राण: शुरुआती गुंडों के बादशाह

प्राण को हिंदी सिनेमा का पहला लोकप्रिय गुंडा कहा जा सकता है। उनकी फिल्में, जैसे “राम और श्याम” और “मधुमती”, में उनके खलनायक रूप ने दर्शकों को उनकी अदाकारी का मुरीद बना दिया।

प्राण के किरदार कई बार बेहद चालाक और ताकतवर दिखाए गए, जो हीरो को बड़ी चुनौती देते थे।

1970 और 1980 का दशक: गुंडों का स्वर्ण युग

1970 और 1980 के दशक में हिंदी फिल्मों के गुंडों ने एक अलग ही ऊंचाई हासिल की। इस दौर में फिल्मों में हिंसा, अपराध, और माफिया की कहानी को बड़े पैमाने पर दिखाया गया।

इन फिल्मों में गुंडों का मुख्य उद्देश्य हीरो को चुनौती देना और अपनी ताकत का प्रदर्शन करना होता था।

अमजद खान और गब्बर सिंह की विरासत

1975 में रिलीज़ हुई “शोले” ने हिंदी सिनेमा को गब्बर सिंह के रूप में सबसे यादगार गुंडा दिया। अमजद खान द्वारा निभाया गया यह किरदार अपने संवादों और अभिनय के कारण अमर हो गया।

“कितने आदमी थे?” और “जो डर गया, समझो मर गया” जैसे डायलॉग आज भी लोगों की जुबान पर हैं।

अमरीश पुरी: बॉलीवुड के प्रभावशाली खलनायक

अमरीश पुरी ने 1980 और 1990 के दशक में अपने करिश्माई अभिनय से खलनायक और गुंडों को एक नया आयाम दिया।

उनकी फिल्में जैसे “मिस्टर इंडिया” में मोगैंबो का किरदार आज भी दर्शकों के दिल में बसा हुआ है। उनका “मोगैंबो खुश हुआ” डायलॉग हर किसी के चेहरे पर मुस्कान ला देता है।

1990 का दशक: बदलते गुंडे

1990 का दशक हिंदी सिनेमा में बदलाव का दौर था। इस समय गुंडों का चित्रण अधिक गहराई और यथार्थवादी ढंग से किया जाने लगा।

गुंडे अब सिर्फ साधारण खलनायक नहीं थे, बल्कि कई बार वे ग्रे शेड वाले किरदार बन गए।

गुलशन ग्रोवर: “बैडमैन” का युग

गुलशन ग्रोवर ने “बैडमैन” के रूप में अपनी अलग पहचान बनाई। उनकी फिल्मों में उनके संवाद और व्यक्तित्व को दर्शकों ने खूब सराहा।

“राम लखन”, “हम”, और “मोहरा” जैसी फिल्मों में उनके किरदार आज भी याद किए जाते हैं।

डैनी डेंजोंगपा और कंचा चीना

डैनी ने अपनी दमदार आवाज और अदाकारी से गुंडों को एक नया चेहरा दिया। उनकी फिल्म “अग्निपथ” में कंचा चीना का किरदार बेहद प्रभावशाली था। इस किरदार ने यह दिखाया कि गुंडे भी सुसंस्कृत और योजनाबद्ध हो सकते हैं।

इसके अलावा और भी कई बेहतरीन विलेन किरदार को डैनी ने अपनी अदाकारी से आज भी जीवित कर रखा है। घातक फिल्म में कात्या के किरदार को कौन भूल सकता है।

2000 और उसके बाद: आधुनिक गुंडे

2000 के दशक में गुंडों का चित्रण पूरी तरह बदल गया। अब ये किरदार अधिक यथार्थवादी और सामाजिक मुद्दों से जुड़े हुए दिखाए जाने लगे।

नवाजुद्दीन सिद्दीकी और “गैंग्स ऑफ वासेपुर”

नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने गैंग्स ऑफ वासेपुर” में फैजल खान का किरदार निभाकर एक नए प्रकार के गुंडे को पेश किया। यह किरदार न केवल जमीनी था, बल्कि अपने इमोशनल और मानसिक पहलुओं के कारण भी खास था।

रितेश देशमुख और “एक विलेन”

2014 में रिलीज़ हुई फिल्म एक विलेन” में रितेश देशमुख ने एक अलग प्रकार के खलनायक का किरदार निभाया। यह गुंडा केवल बाहरी ताकत नहीं, बल्कि मानसिक रूप से भी खतरनाक था।

जॉन अब्राहम और ‘पठान”

साल 2023 में रिलीज हुई फिल्म पठान में जॉन अब्राहम ने विलेन का किरदार निभाकर शाहरुख खान को अच्छी कम्पटीशन दी थी।

कहा जाता है कि दर्शकों को एक्शन फिल्म में तब ज्यादा मजा आता है जब विलेन का किरदार हीरो पर भारी पड़ता है।

गुंडों के किरदार का सामाजिक प्रभाव

हिंदी फिल्मों के गुंडे न केवल मनोरंजन का स्रोत रहे हैं, बल्कि उन्होंने समाज को कई गहरे संदेश भी दिए हैं।

  1. सामाजिक समस्याओं का प्रतिबिंब: फिल्मों के गुंडे अक्सर समाज में मौजूद अपराध, भ्रष्टाचार और अन्याय को उजागर करते हैं।
  2. न्याय की आवश्यकता: हीरो और गुंडे की टकराहट से यह संदेश मिलता है कि अंततः न्याय की जीत होती है।
  3. मनोवैज्ञानिक प्रभाव: आधुनिक गुंडे दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि हर अपराधी के पीछे एक कहानी होती है।

हिंदी फिल्मों के गुंडे केवल खलनायक ही नहीं हैं, बल्कि वे हमारी फिल्मों का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं।

उनकी मौजूदगी से कहानियों में गहराई और रोमांच आता है। चाहे वह गब्बर सिंह का आतंक हो, मोगैंबो की हंसी, या फैजल खान की चतुराई, इन किरदारों ने हिंदी सिनेमा को समृद्ध बनाया है।

भविष्य में, यह देखना रोचक होगा कि हिंदी फिल्मों के गुंडे किस तरह से विकसित होते हैं और नई पीढ़ी के दर्शकों के दिलों में अपनी जगह बनाते हैं।

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